मेरे हालातो से..
मैने तो हर प्रष्ठ
खोल के रख दिया हैं
तुम्हारे सामने
अपनी किताब का.
क्यू नही समझ पाते
तुम, मेरी मजबूरिया
और दे देते हो
हर बार इल्जाम
मेरी विवशताओ को
क्या तुम्हे
आडंबर लगती हैं
सारी बाते
क्यो तुम अविश्वास में
जीते हो ?
और विष उडेल
अपने शब्द बाणो से
आघात करते हो
मुझ पर
त्राहि-त्राहि कर,
करके मुझे व्यथित,
खुद भी
खून के आंसू रोते हो.
समझो, और रखो विवेक,
ना लाओ विकारो को
जो उठते हैं मेरे प्रती
अविश्वास में
अनायास ही तुम्हारे मन में.
मै तुमसे
बेहद प्यार करती हू
मगर मजबूर हू
नही उतर पाती
तुम्हारी उमीदो पर खरी
मै गुनेह्गार हू तुम्हारी
पर मै नही खैलती
भावनाओ से तुम्हारी
हे प्रिये,
धीर धरो
मै सदा ही हू
तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी.
20 टिप्पणियां:
संवेदनशील रचना। बधाई।
कौन निष्ठुर है जो इस सदा को अनसुना कर दे ....!!
वाह वाह वाह !!
ऐसा कैसे रे अनामिका,
हम एक सा कैसे सोचते हैं...मेरे मन की एक एक बात कह दी..
बहुत ही सुन्दर कविता....
अनामिका जी..
आपकी ये रचना सिर्फ पढ़ने लायक नहीं बल्कि महसूस की जा सकती है ऐसे समेटा है शब्दों को....
ऐसे ही लिखते रहिये....
शुभकामनाएँ...
ati sundar
नए साल में हिन्दी ब्लागिंग का परचम बुलंद हो
स्वस्थ २०१० हो
मंगलमय २०१० हो
पर मैं अपना एक एतराज दर्ज कराना चाहती हूँ
सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर के लिए जो वोटिंग हो रही है ,मैं आपसे पूछना चाहती हूँ की भारतीय लोकतंत्र की तरह ब्लाग्तंत्र की यह पहली प्रक्रिया ही इतनी भ्रष्ट क्यों है ,महिलाओं को ५०%तो छोडिये १०%भी आरक्षण नहीं
आपकी कविता पढ़कर तो यही लाइन याद आती है-
धैर्य हो तो रहो थिर
निकालेगा धुन
समय कोई...
अनामिका जी, आदाब
ये कैसी उलझन पेश की है आपने?
मै तुमसे
बेहद प्यार करती हू
मगर मजबूर हू
नही उतर पाती
तुम्हारी उमीदो पर खरी
????????
हे प्रिये,
धीर धरो
मै सदा ही हू
तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी.
!!!!!!!!!!!!!!
कहीं सुनी हुई पंक्ति आपके साथ शेयर कर रहा हूं
'व्यक्ति को उस रूप में स्वीकार करो, जैसा कि वो है
न कि उस रूप में, जैसा कि आप चाहते हैं'
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
Are wah dil chhu liya aapne ..
naw varsh ki hardik badhai..
प्रेम में विवशताओं को उकेरती सुन्दर अभिव्यक्ति....काश विवशताओं को समझा जा सके ..
खूबसूरत रचना के लिए बधाई
मै गुनेह्गार हू तुम्हारी
पर मै नही खैलती
भावनाओ से तुम्हारी ...
बहुत दिल से लिखी ..... जज्बाती रचना है ....... प्यार की सीमाओं को तोड़ती हुई .........
क्या तुम अनभिज्ञ हो
मेरे हालातो से..
मैने तो हर प्रष्ठ
खोल के रख दिया हैं
तुम्हारे सामने
अपनी किताब का.
क्यू नही समझ पाते
तुम, मेरी मजबूरिया
और दे देते हो
हर बार इल्जाम
मेरी विवशताओ को
aapki ye rachna 3-4 baar padh chuki aur tippani bhi de gayi thi magar aaj dekhi tippani hai hi nahi ,kholti na to dhokhe me rah jaati ,bahut hi achchhi lagi rachna .
क्या तुम अनभिज्ञ हो
मेरे हालातो से..
मैने तो हर प्रष्ठ
खोल के रख दिया हैं
तुम्हारे सामने
अपनी किताब का.
अनामिका कुछ लोग तो पढ़ना जानते नहीं, कुछ पढ़ना चाहते नहीं.कुछ सब कुछ समझ कर भी अपने आप को अनभिज्ञ ही बताते हैं जाने कैसे कैसे मन और भावनाएं हैं. किस किस के आगे कलेजा रखेंगी. बहुत सुंदर प्रस्तुती
waah...amazing feelings written beautifully.. :)
bahut khoob likhtii hein aap...
मै तुमसे
बेहद प्यार करती हू
मगर मजबूर हू
नही उतर पाती
तुम्हारी उमीदो पर खरी
बहुत सुन्दर प्रेमभिव्यक्ति है बधाई इस रचना के लिये
hamare bhi blogs par aayiye
बहुत उम्दा लिखा है आपने ...हमारे पास अलफ़ाज़ नहीं है आपकी तारीफ के लिए
बहुत खूब....
http://aleemazmi.blogspot.com/
आपकी कविता को कई बार देख चुका हूँ सोचता हूँ कि समर्पण की सीमा क्या होती है और कविता बार बार यही सोचने को विवश भी करती है . कुछ लिखा न गया कि आखिर इस कविता पर क्या कहा जाये सिवा इसके कि बहुत अच्छी.
प्यारी अनामिका,
मैं माफ़ी चाहती हूँ ...
तुम्हारी टिपण्णी वाणी की पोस्ट पर पढ़ी...
दरअसल इस तरन्नुम का कोई अता पता नहीं है और ये बिना बात के टिपण्णी यहाँ वहां करती है...यह एक छद्म नाम है...हो सकता है यह कोई पुरुष भी हो...इसलिए ऐसा लिखा है...
तुम्हें डरने की क्या ज़रुरत है...दी कहती हो मुझे ..बिदास रहो अब तो..
तुम्हारी..
दी..
मै गुनेह्गार हू तुम्हारी
पर मै नही खैलती
भावनाओ से तुम्हारी
हे प्रिये,
धीर धरो
मै सदा ही हू
तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी.
behtreen
behtreen
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