बुधवार, 1 दिसंबर 2010

मवाद..

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कितनी ही 
अनकही बातों का
घना जंगल 
और 
कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें  घुसने में 
खुद को भी 
भय लगता है.


मानो ...
रक्त-रंजित कर देंगी 
मुझे
इस जंगल के 
भीतर के जहरीले 
अहसासों की नागफणी..
और भर देंगी 
मवाद से 
मेरी रूह को,
दर्द से भरी
ऊपर तक 
चढती हुई बेलें.


मैंने अपने आप को 
समेट लिया है 
अपने ही खोल में 
और मूँद ली हैं आँखे,
कि...
मैं डर रही हूँ ....
इन खामोशियों के 
नीचे दबे 
बाहर आने को व्याकुल 
उस तूफ़ान से 
जो कि काफी है 
लील लेने के लिए 
मेरी जिंदगी को .

44 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें घुसने में
खुद को भी
भय लगता है.

अंततोगत्वा पर इन झाड़ियों में प्रवेश करना ही होता है .. साफ करना है तो
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ... खुद से रूबरू करवाती सी

kshama ने कहा…

जो कि काफी है
लील देने के लिए
मेरी जिंदगी को
तार - तार कर के.
Bhagwaan kare aisa na ho!

कडुवासच ने कहा…

... bahut khoob ... prabhaavashaalee rachanaa !!!

shikha varshney ने कहा…

बेहद मार्मिक और भावपूर्ण रचना.

Sunil Kumar ने कहा…

अनकही बातों का
घना जंगल
और
कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें घुसने में
खुद को भी
भय लगता है.
दिल क़ी गहराई से लिखी गयी एक रचना , बधाई

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

बहुत ही भावुक और मार्मिक कविता........दिल को छूती हुई सुंदर कविता .

सृजन - शिखर पर ( राजीव दीक्षित जी का जाना )

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

गहन अभिव्यक्ति ....न जाने कौन स जंगल होता है जहाँ एहसासों की नागफनी ज़ख़्मी कर देती है ...भावों का समुद्र उड़ेल दिया है ....
लील देने के लिए
मेरी जिंदगी को
तार - तार कर के

लील देना शब्द की जगह लील लेने के लिए लिखें तो ज्यादा सही लगेगा ...

रचना दीक्षित ने कहा…

बेहतरीन भावों से सजी मन को व्यथित करती प्रस्तुति

Sadhana Vaid ने कहा…

मन की व्यथा को बहुत प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है ! सच में ऐसा अक्सर महसूस होता है कि अंतस में इतने काँटे उग आये हैं कि अपने अंतर में खुद अपना प्रवेश ही असंभव सा हो जाता है ! बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी रचना ! बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं !

TRIPURARI ने कहा…

एक दफ़ा वो तूफ़ान गुज़र जाये तो अच्छा ।
ताकि ज़िंदगी अपने आप से रूबरू हो सके ।

मनोज कुमार ने कहा…

इस रचना की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं। स्‍त्री के जीवन की दुरूह परिस्थितियों का सच्‍चा लेखा-जोखा सामने रखता है।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जब जीवन जंगल सा दिखे तो ऊपर का विस्तृत आखाश देख लें।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

*आकाश

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

कितनी ही
अनकही बातों का
घना जंगल
और
कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें घुसने में
खुद को भी
भय लगता है.
सच्ची और अच्छी सी रचना जो अंतर्मन के भाव संजोये है....

Satish Saxena ने कहा…

सावधानी से चलें ...कष्टों की अभिव्यक्ति को व्यक्त करना आसान नहीं ...शुभकामनायें अनामिका

वाणी गीत ने कहा…

कल मुझसे बात तो बड़ी मस्ती भरे अंदाज़ में कर रही थी ...
अब ये क्या हुआ ...
जानती हूँ ...होता है ऐसा ...
मगर खुद से खुद की यात्रा बहुत जरुरी है ...
एक बार सारा मवाद बह जाए ...
फिर सब कुछ दिव्य , इन्द्रधनुषी ...

कविता अंतर्मन की कितने परतों को खोलती हैं ...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

इस कविता पर क्‍या टिप्‍पणी करें समझ नहीं आ रहा? मनुष्‍य के पास ही वह ज्ञान है जिसके बलबूते वह प्रत्‍येक दुख और कष्‍ट को सुख में बदल सकता है। यदि नहीं बदल सकता तो उसे क्‍या कहा जाए?

vandana gupta ने कहा…

कितनी ही
अनकही बातों का
घना जंगल
और
कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें घुसने में
खुद को भी
भय लगता है.
नारी जीवन की भावनाओं को बखूबी उकेरा है………………बेहद उम्दा प्रस्तुति।

Anupama Tripathi ने कहा…

बहुत सुंदर -खुद के अंदर झाकने का प्रयास....!!
और अपनी कमियों को दूर करने की कोशिश.....!!
सुंदर प्रस्तुति है -अनामिका जी .

प्रेम सरोवर ने कहा…

Anamika ji sach kahun- Prastuti aur bhac bahut hi achha laga. Hridaysparshi post.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

सुनीता बहन! आपकी कविता के शब्द इतने प्रभावशाली होते हैं कि भाव उभर कर सामने ही नहीं आते अपनी गहराई का एहसास भी करवाते हैं.. पीड़ा शब्दों में ढल कर कविता बन जाती है और पाठक उसको अपने ह्रदय में महसूस करने लगता है!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

इस मार्मिक रचना की जितनी सराहना की जाए कम है!
--
बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

मैं डर रही हूँ ....
इन खामोशियों के
नीचे दबे
बाहर आने को व्याकुल
उस तूफ़ान से
जो कि काफी है
लील लेने के लिए
मेरी जिंदगी को...
वाह...बहुत अच्छा लिखा है.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

कितनी ही
अनकही बातों का
घना जंगल
और
कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें घुसने में
खुद को भी
भय लगता है.
bahut darr lagta hai

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

गहन अनुभूति के साथ आपने अनकही बातों का खौफ ब्यान किया है ..आपकी रचना बहुत अच्छी लगी .. आपकी रचना आज दिनाक ३ दिसंबर को चर्चामंच पर रखी गयी है ... http://charchamanch.blogspot.com

सुज्ञ ने कहा…

कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें घुसने में
खुद को भी
भय लगता है.

संघर्ष ही तो जीवन है, कंटीली झाडियाँ हटाकर मुस्कराते पुष्प उगाना ही तो लक्ष्य है।

बेहद निश्छल अभिव्यक्ति!!, आभार सम्वेदनाओं को सक्रिय करने के लिये।

कुमार राधारमण ने कहा…

अनकही बातें कितनी ही बार,जीवन को घुटन में तब्दील कर देती हैं। कुछ विकल्प तलाशना चाहिए क्योंकि सीने पर पत्थर रख कोई कब तक जी सकता है!

http://anusamvedna.blogspot.com ने कहा…

बहुत सुंदर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति .....

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आपकी भाव पूर्ण कविता ने मन को झंकृत कर दिया !
सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए धन्यवाद!
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

मर्म को स्पर्श करती सुन्दर कविता.. कथ्य और शिल्प के स्तर पर बेहतरीन..

Kailash Sharma ने कहा…

मैं डर रही हूँ ....
इन खामोशियों के
नीचे दबे
बाहर आने को व्याकुल
उस तूफ़ान से
जो कि काफी है
लील लेने के लिए
मेरी जिंदगी को .

लेकिन कभी तो इस तूफ़ान का मुकाबला करना ही होगा..बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति..आभार

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

गहन सोच और भावपूर्ण अभिव्यक्ति

अनुपमा पाठक ने कहा…

सुन्दर भाव!
प्रवाहमय रचना!

केवल राम ने कहा…

कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें घुसने में
खुद को भी
भय लगता है.
पर जीवन की वास्तविकता भी यही है ...शुक्रिया

palash ने कहा…

सही कहा आपने झाडियो में जाने से डर तो लगता है , लेकिन अगर समाज मे फैली बुराई नामक झाडियों को खतम ना किया गया तो ना जाने कितना मवाद बनेगा और ना जाने कितना रक्त । थोडा तो साहस करना ही पडेगा । हाँ अगर कुछ नेक लोगों का साथ मिल जाय तो मजा आ जाय । झाडियों में भी फूल खिल सकते हैं ।

amar jeet ने कहा…

खुबसूरत रचना .......

बेनामी ने कहा…

dard se risti hui nazm hai ye...uff....aisa lagta hai padhte hue dard ho raha hai....inna depression kyun anamika ji....chalo khush ho jao chalo...smile..... :):):)

hihi...just kidding

nazm bohot bohot acchi hai...bohot marmik

संजय भास्‍कर ने कहा…

आदरणीय अनामिका जी
नमस्कार !
गहन सोच और भावपूर्ण अभिव्यक्ति
नारी जीवन की भावनाओं को बखूबी उकेरा है………………बेहद उम्दा प्रस्तुति।
"माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

मैंने अपने आप को
समेट लिया है
अपने ही खोल में
और मूँद ली हैं आँखे,
कि...
मैं डर रही हूँ ....
इन खामोशियों के
नीचे दबे
बाहर आने को व्याकुल
उस तूफ़ान से
जो कि काफी है
लील लेने के लिए
मेरी जिंदगी को ...

जीवन के कुछ भावोक लम्हों को बाँधा है आपने ... ऐसा होता है कभी कभी जीवन में जब इंसान अपने आप से ही घबराने लगता है ....

Manav Mehta 'मन' ने कहा…

wah wah kya baat hai.....

mridula pradhan ने कहा…

behad bhawpurn.

पंकज कुमार झा. ने कहा…

वाह वाह ...बहुत सीधी-सच्ची सादी सुन्दर आत्मस्वीकृति....शायद कटीली राहों के बीच से ही निकल जाने वाली चीज़ को जिंदगी कहते हैं....खूबसूरत रचना.
पंकज झा.

बेनामी ने कहा…

कितनी ही / अनकही बातों का / घना जंगल / और कंटीली झाडियाँ हैं / भीतर वजूद में / जिनमें घुसने में / खुद को भी / भय लगता है.

आप ठीक कह रही हैं, भय तो लगता है, लेकिन इस भय से पार पाने का नाम ही तो ज़िंदगी है...

मंजु

Ankur Jain ने कहा…

nari man ka sundar chitran...sadhuvad!!!